Saturday 8 April 2017

यादों की बदली

पचास ऋतुचक्रों को समर्पित
इस जीवन के संग-सफर में
आज हर एक मोड़ पर
मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा
जरुरत है।

पर मैं जानता हूँ
अब इस जीवन में
तुम मुझे कभी नहीं मिलोगी।

मैं चाह कर भी
तुम्हारी कोई झलक
कोई आवाज, कोई खबर
नहीं ले पाऊंगा।

फिर भी मैं तुम्हें
हर मौसम
हर महीने
हर सप्ताह
हर दिन
हर लम्हा
पूरी उम्र भर
इस जीवन के सफर में जीवूंगा।

page sankhya --९८




Wednesday 21 December 2016

आत्म -कथ्य

अँजुली भर शब्द 

मेरा यह तृतीय काव्य-संग्रह आपके हाथों में है। पहले दोनों काव्य-संग्रहों "कुमकुम के छींटे" व "एक नया सफर" को आपका भरपूर प्यार व आशीर्वाद मिला। मुझे विश्वास है कि मेरे इस संग्रह "अनुभूति और अभिव्यक्ति" को भी आपका स्नेह व आशीर्वाद पूर्व से अधिक ही प्राप्त होगा।

काब्य-मर्मज्ञ कहते हैं -कविता का उद्देश्य मन की तीव्रतम एवं गहनतम अनुभूतियों को अभिव्यक्ति में ढालना है। अर्थात मन-अंतर्मन में दबे,छुपे और उठे विचारों को कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त करना ही कविता का कर्म और धर्म है। अल्प शब्दों में कहें तो अनुभूति से अभिव्यक्ति तक की यात्रा का नाम ही कविता है।

देखने में भले हम कितने ही सहज और स्वाभाविक लगते हों, किन्तु हमारे अन्तस् में भावनाओं का, विभिन्न प्रकार के विचारों का सागर, सदा उमड़ता रहता है। कभी आक्रोश बन, कभी उल्लास और असंतोष बन, तो कभी विषाद की गहन परछाइयाँ बन कर। यही भावनाएँ और उनसे जुड़े विचार, अथक मानसिक ऊहापोह को झेलते हुए कई रूपों में उभर कर सामने आते हैं। ऐसे में भावुक और संवेदनशील ह्रदय विस्फोटक न होकर अंदर ही अंदर घुटता है और भाव-द्रवित होता है। यही स्मृति, यही कल्पना, यही झंकृति, यही थरथराहट जब शब्दों में ढल जाती है तो वह कविता का रूप ले लेती है।

वियोगी हरी ने लिखा है :--
वियोगी होगा पहला कवि, आह ! से उपजा होगा गान
उमड़ कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।

विश्व कवियों ने भी स्वीकार किया है - Our sweetest songs are those that tell of saddest thoughts. शैली तथा किट्स ने भी वेदना को उदात्त भाव के रूप में स्वीकार किया है। साहित्य की प्रेरणा का मूल स्रोत वेदना है।  जब प्रेम में वियोग आ जाए तो आँसूं शब्द बन जाते हैं।  विरहाकुल मन की घनीभूत पीड़ा से जन्में आँसूं, कविता बन कर बहने लग जाते हैं।वाल्मीकि का आदि काव्य रामायण भी इसी वेदना को आधार बना कर रचा गया था।

कहीं पढ़ा था कि कविता कभी-कभी सुखी हुई नदी के किनारे की रेत में खोद कर निकाले गए मीठे पानी का स्रोत भी हो सकती है, जिसे पा कर तपती हुई दोपहरी में कोई प्यासा कंठ तृप्त और धन्य भी हो सकता है। कविता वेदना से मुक्त कर मानव ह्रदय को स्वस्थ बनाती है। मेरे लिए तो रामबाण ओषधि का काम किया है इन कविताओं ने।

कहते हैं कि सुख बांटने से बढ़ता है और दुःख बांटने से घटता है। अपनों से अपनी पीड़ा का परिचय कराने से उसका आवेग वैसे भी कम हो जाता है। इसी विश्वास के साथ आपकी रूचि को  "अनुभूति और अभिव्यक्ति" पर बुलाया है। प्रिय पाठक ! मेरी सहधर्मिणी स्व. सुशीला कांकाणी मेरी काब्य प्रेरणा रही, प्रथम श्रोता रही। उसका वियोग मुझे अशेष पीड़ा दे गया।मेरी इस पुस्तक की अधिकांश कविताएं आपको उसी के वियोग के दुःख के इर्द-गिर्द परिक्रमा करती हुई मिलेगी।

सुहाने रिश्तों के बंधन टूटने से उपजे दर्द के पल, आपको इन कविताओं में पढने को मिलेंगे। अहसास-ए -दर्द ही है ये सीधी-सादी रचनाऐं। क्योंकि विभिन्न मनःस्थितियों में जो अनुभूत किया वही कलम ने सहज भाव से अभिव्यक्त कर, आपके सामने रख दिया।भाषा, छंद व ब्याकरण का सम्यक ज्ञान न होने के कारण इनमें अनेक त्रुटियाँ रहना सम्भव है। अपेक्षा है कि उदार पाठक क्षमा करेंगे। मेरे सुख-दुःख, संयोग-वियोग,आसा-निरासा, आँसू-मुस्कान के सहज-जटिल और अनुकूल-प्रतिकूल मोड़ो से गुजर कर अभिव्यक्ति के पड़ाव पर ख़त्म हुई मेरी अनुभूति की यह यात्रा आपके मर्म-स्थल को कितना छू पाएगी यह तो आप ही बताएँगे।

मैं अपनी पूज्य स्व. माताजी श्रीमती भंवरी देवी जी और स्व. पिताजी श्री पुसराज जी (सुजानगढ़, राजस्थान )को  स्मरण करता हूँ तथा उनके चरणों में श्रद्धापूर्वक अपना मस्तक नत करता हूँ जिनकी छाया में पला बढ़ा हूँ और जिन्होंने न केवल जीवन दिया, बल्कि जीवन में सब कुछ दिया है। उनका ऋण मैं कभी भी नहीं चूका सकूँगा। आज मेरी धर्मपत्नी स्मृतिशेष सुशीला कांकाणी होती तो बहुत खुश होती, जिसे मैं ये पुस्तक समर्पित कर रहा हूँ।  

इस संग्रह की सारगर्भित, विद्वतापूर्ण व विस्तृत भूमिका हिंदी- साहित्य-आकाश की उज्जवल नक्षत्र, देश-विदेश में ख्यातिलब्ध व समादृत लेखिका व हिंदी काव्य मंच की स्थापित आकर्षण, प्रखर व सार्थक काव्यसाधना के लिए बहुचर्चित ऊर्जस्वी कवयित्री  डॉक्टर कविता किरण जी ने लिख कर पुस्तक को व मुझे जो गौरव प्रदान किया है उसके लिये मैं इनका अतिशय आभारी हूँ।  

अंत में मैं उस सर्वशक्तिमान ईश्वर, जिनके प्रति पूर्ण आस्था मेरे जीवन का सम्बल है, श्रद्धाभाव से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जो मेरी हर अच्छाइयों और गुणों का श्रोत है। जिसने मेरी कमियों, गलतियों व असफलताओं के बावजूद, मुझ पर कृपा की है और मुझे परिपूर्ण सम्बल दिया। उसी के फलस्वरूप यह कृति मैं आप सब के समक्ष रखते हुए अपेक्षा करता हूँ कि आप इसे भी वही प्यार और मान्यता देंगे जो पूर्व की कृतियों को दी है।  धन्यवाद !


                                                                                                                             भागीरथ कांकाणी  
फ्लेट न०: 3 EE, Manikaran                                                                                                              6 जुलाई, 2017
3 B, राममोहन मल्लिक गार्डन लेन                                                                                          
कोलकाता 700 010

मोबाइल : 098300 65061
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जीवन के सुख-चैन चले गए

जीवन के सुख-चैन चले गए      


अब तो केवल यादों के संग गुजर रही है जिंदगी                                                      
बैन,सैन और चतुर नैन सभी तुम्हारे संग चले गए।  

                                                         अब तो मुझे तन्हाइयों में जीने की आदत पड़ गयी                      
                                                         कोई घडी दो घड़ी आए तो क्या, आ कर चले गए।            

दुःखों के दावानल में जलने,मैं अकेला रह गया हूँ                          
जीवन के सारे सुख-चैन तो तुम्हारे संग चले गए।                                 
                                                                    
                                                          मेरी कविताएं पढ़ तुम सदा वाह ! वाह !कहा करती                       
                                                         अब तो छंद भी मेरा साथ छोड़,तुम्हारे संग चले गए।                                                      
मेरे जीवन के उपवन में अब कोई बहार नहीं रही 
मोहब्बत और इजहार तो तुम्हारे संग ही चले गए।
               
                                                            जीना तो मेरे लिएअब केवल एक मज़बूरी रह गई                           
                                                           चाहत और प्यार के दिन तो तुम्हारे संग ही चले गए।                                    


     पेज संख्या -----95 


                   

                        

                                                                        
                   

                                             

Monday 19 December 2016

खुशियाँ खो गई खँडहरों में

खुशियाँ खो गई खँडहरों में

उजड़ गया मेरा चमन
लूट गयी मेरी बहारें
मुरझा गई प्यार की कली
वीरानी छा गई गुलसन में

मिला अनन्त विछोह का दर्द
साथ रह गया केवल
यादों का अथाह समुद्र

बिखर गया प्यार का ताजमहल
खुशियाँ खो गई खँडहरों में

सब कुछ बदल गया
घुन लगी चोखट बन गई जिंदगी

दिल रोता है हर सांस पर
आँसूंओं संग सूनापन है जिंदगी में
अतृप्त है मेरा जीवन खोकर उसे

जिंदगी के सलीब को 
लटका कर अपने कन्धों पर 
घिसट रहा हूँ अब 
जब तक है दम मुझ में।  



पेज संख्या --97 





विछोह का दर्द

विछोह का दर्द 

तुम्हारे विछोह के बाद
अब मुझे कुछ भी
अच्छा नहीं लगता

खाने बैठता हूँ तो
दाल पनीली लगती है
सब्जियाँ बेस्वाद लगती है

कोई मिलने आता है तो
मुलाकातें बेगानी लगती है
दिन अनमना और
रातें पहाड़ लगती है

नहीं मिलता सुकून अब
किसी भी बात से

नहीं करता मन अब
बरामदे में बैठ
अकेले चाय पीने का
पार्क में जाकर
अकेले घूमने का

विंध्य से लेकर हिमालय तक
गंगा से लेकर वोल्गा तक
न जाने कितने पहाड़ और नदियाँ
तुम्हारे संग जीवन में पार की

लेकिन आज तुम्हारे
विछोह के दर्द को
पार पाना मेरे लिए
भारी हो गया।


पेज संख्या ---94




बेबसी का जीवन

बेबसी का जीवन 

नहीं मरनी चाहिए
पति से पहले पत्नी
भीतर-बाहर
सब समाप्त हो जाता है।

घर भी नहीं लगता
फिर घर जैसा
अपने ही घर में पति
परदेशी बन जाता है।

बिन पत्नी के
पति रहता है मृतप्रायः
निरुपाय,अकेला
ठहरे हुए वक्त सा और
कटे हुए हाल सा।

घर हो जाता है
उजड़े हुए उद्यान सा
बेवक्त आये पतझड़ सा।

ढल जाती है
जीवन की सुहानी संध्या
अधूरा हो जाता है
बिन पत्नी के जीवन।

अमावस का अन्धकार
छा जाता है जीवन में
बेअर्थ हो जाता है
जीना फिर जीवन।


page sankhyan -----96



फिर भी बैठी मेरे अन्तर में

   फिर भी बैठी मेरे अन्तर में
      

      जब से तुम बिछुड़ी हो मुझ से   
         चैन खो गया सारा जीवन से 
         छोड़ अकेला पथ में मुझको  
          तुम पहुंची भू से अम्बर को। 
                                            
                                                   जब-जब बात तुम्हारी होती  
                                                    दिल रोता ऑंखें भर आती 
                                                    नयनों में सावन घिर आता    
                                                   मन मेरा विचलित हो जाता।   

          मिटा नहीं पाता यादों को 
    ख़्वाब नहीं दे पाता आँखों को
       चली गयी तुम प्रीत लगाकर
        बिच राह में मुझे छोड़ कर। 

   साथ तुम्हारा नहीं भूलूंगा                                     
                 जीवन भर मैं याद रखूंगा                                                   
             चली गई तुम दूर क्षितिज में                                                  
       फिर भी बैठी मेरे अन्तर में।                                         




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